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Law NTA UGC NET Paper 02: UNIT – II: CONSTITUTIONAL AND ADMINISTRATIVE LAW

UNIT – II: Constitutional and Administrative Law

Lecture 1: संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों की संरचना और महत्

1. Preamble
संविधान की प्रस्तावना

🔷 परिचय:
संविधान की प्रस्तावना (Preamble) भारतीय संविधान की आत्मा मानी जाती है। यह संविधान की उद्देशिका है, जो न केवल हमारे संविधान की मूल भावना को दर्शाती है, बल्कि इसमें राष्ट्र की आकांक्षाओं, मूल्यों और लक्ष्यों की अभिव्यक्ति भी होती है।

🔷 प्रस्तावना का पाठ:
“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए...” (पूरा पाठ यहाँ जोड़ा गया है)

🔷 प्रस्तावना के मूल तत्व:

  • प्रभुत्व-संपन्न (Sovereign)
  • समाजवादी (Socialist)
  • पंथनिरपेक्ष (Secular)
  • लोकतंत्रात्मक (Democratic)
  • गणराज्य (Republic)

🔷 प्रमुख उद्देश्य:

  • न्याय: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक
  • स्वतंत्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना
  • समानता: अवसर और प्रतिष्ठा की समानता
  • बंधुता: व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्रीय एकता व अखंडता

🔷 ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रस्तुत “Objectives Resolution” से प्रेरित। अमेरिकी संविधान से भी प्रस्तावना प्रेरित है।

🔷 संशोधन:
42वें संशोधन (1976) द्वारा "समाजवादी", "पंथनिरपेक्ष" और "राष्ट्रीय एकता और अखंडता" जैसे शब्द जोड़े गए।

🔷 न्यायिक व्याख्याएँ:

  • केसवानंद भारती केस (1973): प्रस्तावना संविधान की मूल संरचना का हिस्सा है।
  • एस.आर. बोम्मई केस (1994): धर्मनिरपेक्षता को संविधान की मूल संरचना बताया।
  • बेरुबारी केस (1960): शुरुआत में प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा नहीं माना गया था।

🔷 परीक्षा उपयोगी बिंदु:

तत्वअर्थसंशोधन
समाजवादीआर्थिक समानता42वां संशोधन
पंथनिरपेक्षधर्म की स्वतंत्रता42वां संशोधन
न्यायसामाजिक, आर्थिक, राजनीतिकमूल प्रस्तावना

🔷 आलोचना:
प्रस्तावना को अस्पष्ट व आदर्शवादी कहा गया है, किंतु यह संविधान की मूल भावना को प्रतिबिंबित करती है।

🔷 निष्कर्ष:
प्रस्तावना संविधान की आत्मा है, जो राष्ट्र के आदर्शों और लक्ष्यों को प्रतिबिंबित करती है। यह संविधान के अनुच्छेदों को व्याख्यायित करने में भी सहायक है और वर्तमान समय में भी अत्यंत प्रासंगिक है।

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Fundamental Rights
Fundamental Rights

🔷 भूमिका:

🔷 परिचय:
मौलिक अधिकार (Fundamental Rights) भारतीय संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12 से 35) में वर्णित हैं। ये अधिकार नागरिकों की स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं और राज्य पर सीमाएं निर्धारित करते हैं। इन्हें न्यायालय द्वारा लागू किया जा सकता है, और ये लोकतंत्र के आधार स्तंभ माने जाते हैं।

🔷 उत्पत्ति (Origin):
मौलिक अधिकारों की अवधारणा अमेरिकी संविधान (Bill of Rights), फ्रांसीसी क्रांति (1789) के घोषणापत्र और यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (1948) से प्रेरित है। संविधान सभा की “Advisory Committee on Fundamental Rights” (अध्यक्ष: सरदार वल्लभभाई पटेल) ने इनके प्रारूप की सिफारिश की थी।

🔷 मौलिक अधिकारों की सूची:

  1. अनुच्छेद 14–18: समानता का अधिकार (Right to Equality)
  2. अनुच्छेद 19–22: स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom)
  3. अनुच्छेद 23–24: शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right Against Exploitation)
  4. अनुच्छेद 25–28: धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion)
  5. अनुच्छेद 29–30: सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (Cultural and Educational Rights)
  6. अनुच्छेद 32: संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

🔷 प्रत्येक अधिकार का सारांश:

  • समानता का अधिकार: कानून के समक्ष समानता और भेदभाव का निषेध (अनु. 14–15), सार्वजनिक नियुक्तियों में अवसर की समानता (अनु. 16), अछूत प्रथा का अंत (अनु. 17), उपाधियों का उन्मूलन (अनु. 18)।
  • स्वतंत्रता का अधिकार: वाक् और अभिव्यक्ति, आंदोलन, संगठन आदि की स्वतंत्रता (अनु. 19), जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण (अनु. 21), शिक्षा का अधिकार (21A), गिरफ़्तारी के विरुद्ध सुरक्षा (अनु. 22)।
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार: मानव तस्करी और बलात् श्रम का निषेध (अनु. 23), बाल श्रम का निषेध (अनु. 24)।
  • धार्मिक स्वतंत्रता: धर्म का पालन, प्रचार और उपासना की स्वतंत्रता (अनु. 25–28)।
  • संस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार: अल्पसंख्यकों को संस्कृति व शिक्षा की रक्षा (अनु. 29–30)।
  • संवैधानिक उपचार: उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में रिट याचिकाओं द्वारा अधिकारों की रक्षा (अनु. 32)।

🔷 रिट्स (Writs) – अनुच्छेद 32 व 226:

  • Habeas Corpus: शरीर को प्रस्तुत करो
  • Mandamus: आदेश देने हेतु
  • Prohibition: कार्य रोकने हेतु
  • Certiorari: निर्णय की समीक्षा हेतु
  • Quo-Warranto: पद की वैधता की जाँच

🔷 प्रमुख न्यायिक फैसले:

  • केसवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): मौलिक अधिकार संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं।
  • मेनेक गाँधी बनाम भारत संघ (1978): अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए 'न्यायपूर्ण प्रक्रिया' को शामिल किया गया।
  • ओल्गा टेलिस केस (1985): जीवन के अधिकार में आजीविका का अधिकार शामिल है।
  • शायरा बानो केस (2017): ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया।

🔷 वर्तमान महत्वपूर्ण घटनाएँ:

  • सबरीमाला केस (2018): महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध अनु. 14, 15 और 25 का उल्लंघन माना गया।
  • आधार केस (2018): निजता का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार है।
  • राइट टू इंटरनेट: केरल हाईकोर्ट ने इसे शिक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जोड़ा।

🔷 संशोधन:

  • 44वें संशोधन द्वारा अनु. 19 और 21 को राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान स्थगित नहीं किया जा सकता।
  • 86वां संशोधन: अनु. 21A के तहत शिक्षा का अधिकार जोड़ा गया।
    • Most Important Leading Cases

        🔷 Article 12 – Definition of 'State'

        • R.D. Shetty v. International Airport Authority (1979)
          सरकारी संस्था की प्रकृति और कार्य का परीक्षण कर बताया गया कि कौन 'State' की परिभाषा में आता है। सार्वजनिक कार्य करने वाले निकाय भी ‘State’ माने जा सकते हैं।
        • Zee Telefilms Ltd. v. Union of India (2005)
          BCCI को 'State' नहीं माना गया क्योंकि उसके कार्यों में राज्य का नियंत्रण नहीं था। यह केस सीमा तय करता है कि किसे ‘राज्य’ कहा जाए।

        🔷 Article 13 – Laws Inconsistent with or in Derogation of Fundamental Rights

        • Keshavananda Bharati v. State of Kerala (1973)
          इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह संविधान की 'मूल संरचना' को नहीं बदल सकती।
        • Minerva Mills v. Union of India (1980)
          मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक सिद्धांतों में संतुलन की बात की गई। अनुच्छेद 13 का विस्तार हुआ।

        🔷 Article 14 – Right to Equality

        • Maneka Gandhi v. Union of India (1978)
          व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता का अधिकार केवल प्रक्रियात्मक नहीं, बल्कि न्यायसंगत होनी चाहिए।
        • E.P. Royappa v. State of Tamil Nadu (1974)
          "Equality is antithesis of arbitrariness" – मनमानी कार्रवाई को अनुच्छेद 14 के अंतर्गत असंवैधानिक माना गया।

        🔷 Article 15 – Prohibition of Discrimination

        • Indra Sawhney v. Union of India (1992)
          OBC के लिए आरक्षण की सीमा 50% तय की गई, जाति आधारित भेदभाव की संविधान सम्मत व्याख्या की गई।

        🔷 Article 19 – Protection of Certain Rights Regarding Freedom

        • Romesh Thapar v. State of Madras (1950)
          प्रेस की स्वतंत्रता को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अंग माना गया।
        • Shreya Singhal v. Union of India (2015)
          IT Act की धारा 66A को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विरुद्ध मानते हुए निरस्त किया गया।

        🔷 Article 21 – Protection of Life and Personal Liberty

        • Maneka Gandhi v. Union of India (1978)
          जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार केवल 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' नहीं, बल्कि 'न्यायपूर्ण प्रक्रिया' होना चाहिए।
        • Justice K.S. Puttaswamy (Retd.) v. Union of India (2017)
          निजता का अधिकार मौलिक अधिकार घोषित किया गया।
        • Sunil Batra v. Delhi Administration (1978)
          जेल में भी बंदियों को अनुच्छेद 21 के तहत मानवीय अधिकार प्राप्त हैं।

        🔷 Article 21A – Right to Education

        • Unni Krishnan v. State of Andhra Pradesh (1993)
          शिक्षा के अधिकार को जीवन के अधिकार में शामिल किया गया। बाद में 86वां संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21A जोड़ा गया।

        🔷 Article 25–28 – Right to Freedom of Religion

        • Bijoe Emmanuel v. State of Kerala (1986)
          राष्ट्रगान के दौरान खड़े न होने वाले विद्यार्थियों को धार्मिक स्वतंत्रता के तहत संरक्षण दिया गया।
        • Indian Young Lawyers Assn. v. State of Kerala (Sabarimala Case, 2018)
          महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर रोक को असंवैधानिक बताया गया।

        🔷 Article 32 – Right to Constitutional Remedies

        • Dr. B.R. Ambedkar: इसे "heart and soul of the Constitution" कहा गया। यह मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका का अधिकार देता है।
        • Bandhua Mukti Morcha v. Union of India (1984)
          बंधुआ मजदूरी के विरुद्ध जनहित याचिका (PIL) के माध्यम से हस्तक्षेप।

        🔷 निष्कर्ष:
        अनुच्छेद 12 से 32 भारतीय नागरिकों को न केवल मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं, बल्कि उनकी रक्षा का भी प्रावधान करते हैं। इनसे संबंधित न्यायालयों के निर्णय भारत के संवैधानिक विकास और न्यायिक सक्रियता के द्योतक हैं।

Fundamental Duties
Fundamental Duties

🔷 भूमिका:

🔷 मौलिक कर्तव्यों की उत्पत्ति:

मौलिक कर्तव्यों को भारतीय संविधान में 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से जोड़ा गया। यह भाग IV-A (अनुच्छेद 51A) के अंतर्गत आता है। इसका उद्देश्य नागरिकों में नैतिक जिम्मेदारी, देशभक्ति की भावना और राष्ट्रीय एकता को मजबूत करना है।

🔷 मौलिक कर्तव्यों की संख्या:

वर्तमान में संविधान में 11 मौलिक कर्तव्य हैं। पहले 10 थे, 86वें संविधान संशोधन (2002) द्वारा 11वां कर्तव्य जोड़ा गया – “6 से 14 वर्ष के बच्चों को शिक्षा दिलवाना।”

🔷 अनुच्छेद 51A के अंतर्गत 11 मौलिक कर्तव्य:

  1. संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करना।
  2. स्वतंत्रता संग्राम में देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले महान पुरुषों की स्मृति का आदर करना।
  3. भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करना।
  4. देश की रक्षा करना और आह्वान होने पर राष्ट्र की सेवा करना।
  5. सामाजिक सद्भाव और भ्रातृत्व की भावना को बढ़ावा देना।
  6. हमारी समृद्ध मिश्रित संस्कृति की विरासत का महत्व समझना और उसका संरक्षण करना।
  7. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा करना।
  8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन की भावना को बढ़ावा देना।
  9. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा से दूर रहना।
  10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों में उत्कृष्टता प्राप्त करने का प्रयास करना।
  11. 6 से 14 वर्ष के बच्चों को शिक्षा दिलवाना (86वां संशोधन, 2002)।

🔷 मौलिक कर्तव्यों की प्रकृति:

  • ये कर्तव्य नैतिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियां हैं।
  • ये न्यायालय में प्रवर्तनीय (Enforceable) नहीं हैं, लेकिन संसद द्वारा कानून बनाकर इन्हें बाध्यकारी बनाया जा सकता है।
  • संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों की तरह ही, ये आदर्शोन्मुख हैं।

🔷 महत्वपूर्ण न्यायिक दृष्टिकोण:

  • AIIMS Students Union v. AIIMS (2001):
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौलिक कर्तव्य संविधान के आदर्शों को दर्शाते हैं और राज्य को ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे नागरिक इनका पालन करें।
  • Ranganath Mishra Commission Report:
    नागरिकों को उनके अधिकारों के साथ-साथ कर्तव्यों के प्रति भी सजग बनाया जाना चाहिए।
  • MC Mehta v. Union of India (1987):
    पर्यावरण संरक्षण को एक मौलिक कर्तव्य के रूप में लागू किया गया, जिससे न्यायालय ने राज्य और नागरिक दोनों को उत्तरदायी ठहराया।

🔷 अंतर – मौलिक अधिकार व मौलिक कर्तव्य:

मौलिक अधिकार मौलिक कर्तव्य
न्यायालय में प्रवर्तनीय सीधे प्रवर्तनीय नहीं
नागरिकों को शक्ति प्रदान करते हैं नागरिकों पर नैतिक जिम्मेदारी डालते हैं
संविधान के भाग III में संविधान के भाग IV-A में

🔷 आलोचना:

  • इनमें दंडात्मक प्रावधानों की कमी है।
  • सभी वर्गों के नागरिकों के लिए समान रूप से लागू करना व्यावहारिक रूप से कठिन है।
  • कुछ कर्तव्य अस्पष्ट हैं – जैसे “उत्कृष्टता की भावना”।

🔷 निष्कर्ष:

मौलिक कर्तव्य भारतीय संविधान की आत्मा को दर्शाते हैं। ये राष्ट्र निर्माण में नागरिकों की सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। इनके पालन से नागरिक न केवल अपने अधिकारों का आनंद उठा सकते हैं, बल्कि देश की एकता, अखंडता और गरिमा को भी बनाए रख सकते हैं।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy - DPSP) भारतीय संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51) में निहित हैं। इन सिद्धांतों का उद्देश्य भारत को एक सामाजिकतावादी, कल्याणकारी और न्यायपूर्ण राज्य बनाना है।

🔷 उद्देश्य:

  • सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना।
  • राज्य को नीति निर्माण में मार्गदर्शन देना।
  • नागरिकों के लिए एक बेहतर जीवन स्तर की गारंटी देना।

🔷 विशेषताएँ:

  • न्यायालय में प्रवर्तनीय (Justiciable) नहीं हैं।
  • राज्य द्वारा कानूनों और नीतियों के निर्माण में मार्गदर्शक हैं।
  • सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास करते हैं।

🔷 DPSP के प्रकार / वर्गीकरण (M. C. Setalvad और Granville Austin द्वारा):

  1. सामाजिकवादी सिद्धांत (Socialist Principles):
    • अनुच्छेद 38: सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता।
    • अनुच्छेद 39: जीवन के साधनों का समान वितरण।
    • अनुच्छेद 41: काम और शिक्षा का अधिकार।
    • अनुच्छेद 42: श्रमिकों को न्यायपूर्ण काम की स्थिति और मातृत्व लाभ।
  2. उदारवादी सिद्धांत (Liberal Principles):
    • अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)।
    • अनुच्छेद 47: नशा एवं मादक पदार्थों पर प्रतिबंध।
    • अनुच्छेद 48: पशुधन की रक्षा और गौहत्या पर प्रतिबंध।
  3. गांधीवादी सिद्धांत (Gandhian Principles):
    • अनुच्छेद 40: पंचायत राज व्यवस्था।
    • अनुच्छेद 43: कुटीर उद्योगों का संवर्धन।
    • अनुच्छेद 46: अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की रक्षा।

🔷 प्रमुख संशोधन:

  • 42वां संविधान संशोधन (1976): अनुच्छेद 39A, 43A, और 48A जोड़े गए।
  • 86वां संविधान संशोधन (2002): अनुच्छेद 45 में बदलाव किया गया – 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा।

🔷 प्रमुख अनुच्छेद:

  • अनुच्छेद 38: कल्याणकारी राज्य का निर्माण।
  • अनुच्छेद 39: नीति निर्देशक सिद्धांतों की आधारशिला।
  • अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता।
  • अनुच्छेद 48A: पर्यावरण संरक्षण।

🔷 न्यायालय की दृष्टि:

  • Champakam Dorairajan v. State of Madras (1951):
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकारों का वर्चस्व है, DPSP केवल नीति निर्देशक हैं।
  • Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973):
    न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांतों में संतुलन बनाए रखना चाहिए।
  • Minerva Mills v. Union of India (1980):
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि DPSP संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का हिस्सा हैं।
  • Unni Krishnan v. State of Andhra Pradesh (1993):
    अनुच्छेद 45 के तहत शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों से जोड़ दिया गया।

🔷 समकालीन संदर्भ में उपयोग:

  • पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अनुच्छेद 48A का महत्व बढ़ा है।
  • समान नागरिक संहिता पर बहसें तीव्र हैं (अनुच्छेद 44)।
  • स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण से जुड़े कानून DPSP से प्रेरित हैं।

🔷 आलोचना:

  • न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं होने के कारण इनकी प्रभावशीलता सीमित है।
  • कई सिद्धांत अस्पष्ट और व्यापक हैं – व्याख्या कठिन होती है।
  • राज्य की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर इनका कार्यान्वयन निर्भर है।

🔷 निष्कर्ष:

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भारतीय संविधान की सामाजिक आत्मा को प्रकट करते हैं। वे राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वह कैसे एक न्यायपूर्ण, समतावादी और कल्याणकारी समाज की स्थापना करे। न्यायालयों द्वारा इन्हें मौलिक अधिकारों के साथ संतुलित रूप में अपनाने से इनकी संवैधानिक गरिमा और अधिक सुदृढ़ हुई है।

DPSP
DPSP.

🔷 प्रस्तावना:

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (Directive Principles of State Policy - DPSP) भारतीय संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से 51) में निहित हैं। इन सिद्धांतों का उद्देश्य भारत को एक सामाजिकतावादी, कल्याणकारी और न्यायपूर्ण राज्य बनाना है।

🔷 उद्देश्य:

  • सामाजिक और आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना।
  • राज्य को नीति निर्माण में मार्गदर्शन देना।
  • नागरिकों के लिए एक बेहतर जीवन स्तर की गारंटी देना।

🔷 विशेषताएँ:

  • न्यायालय में प्रवर्तनीय (Justiciable) नहीं हैं।
  • राज्य द्वारा कानूनों और नीतियों के निर्माण में मार्गदर्शक हैं।
  • सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना का प्रयास करते हैं।

🔷 DPSP के प्रकार / वर्गीकरण (M. C. Setalvad और Granville Austin द्वारा):

  1. सामाजिकवादी सिद्धांत (Socialist Principles):
    • अनुच्छेद 38: सामाजिक न्याय और आर्थिक समानता।
    • अनुच्छेद 39: जीवन के साधनों का समान वितरण।
    • अनुच्छेद 41: काम और शिक्षा का अधिकार।
    • अनुच्छेद 42: श्रमिकों को न्यायपूर्ण काम की स्थिति और मातृत्व लाभ।
  2. उदारवादी सिद्धांत (Liberal Principles):
    • अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code)।
    • अनुच्छेद 47: नशा एवं मादक पदार्थों पर प्रतिबंध।
    • अनुच्छेद 48: पशुधन की रक्षा और गौहत्या पर प्रतिबंध।
  3. गांधीवादी सिद्धांत (Gandhian Principles):
    • अनुच्छेद 40: पंचायत राज व्यवस्था।
    • अनुच्छेद 43: कुटीर उद्योगों का संवर्धन।
    • अनुच्छेद 46: अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की रक्षा।

🔷 प्रमुख संशोधन:

  • 42वां संविधान संशोधन (1976): अनुच्छेद 39A, 43A, और 48A जोड़े गए।
  • 86वां संविधान संशोधन (2002): अनुच्छेद 45 में बदलाव किया गया – 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा।

🔷 प्रमुख अनुच्छेद:

  • अनुच्छेद 38: कल्याणकारी राज्य का निर्माण।
  • अनुच्छेद 39: नीति निर्देशक सिद्धांतों की आधारशिला।
  • अनुच्छेद 44: समान नागरिक संहिता।
  • अनुच्छेद 48A: पर्यावरण संरक्षण।

🔷 न्यायालय की दृष्टि:

  • Champakam Dorairajan v. State of Madras (1951):
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौलिक अधिकारों का वर्चस्व है, DPSP केवल नीति निर्देशक हैं।
  • Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973):
    न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक सिद्धांतों में संतुलन बनाए रखना चाहिए।
  • Minerva Mills v. Union of India (1980):
    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि DPSP संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) का हिस्सा हैं।
  • Unni Krishnan v. State of Andhra Pradesh (1993):
    अनुच्छेद 45 के तहत शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों से जोड़ दिया गया।

🔷 समकालीन संदर्भ में उपयोग:

  • पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अनुच्छेद 48A का महत्व बढ़ा है।
  • समान नागरिक संहिता पर बहसें तीव्र हैं (अनुच्छेद 44)।
  • स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण से जुड़े कानून DPSP से प्रेरित हैं।

🔷 आलोचना:

  • न्यायालय में प्रवर्तनीय नहीं होने के कारण इनकी प्रभावशीलता सीमित है।
  • कई सिद्धांत अस्पष्ट और व्यापक हैं – व्याख्या कठिन होती है।
  • राज्य की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर इनका कार्यान्वयन निर्भर है।

🔷 निष्कर्ष:

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भारतीय संविधान की सामाजिक आत्मा को प्रकट करते हैं। वे राज्य को यह निर्देश देते हैं कि वह कैसे एक न्यायपूर्ण, समतावादी और कल्याणकारी समाज की स्थापना करे। न्यायालयों द्वारा इन्हें मौलिक अधिकारों के साथ संतुलित रूप में अपनाने से इनकी संवैधानिक गरिमा और अधिक सुदृढ़ हुई है।

Lecture 2. Union and State Executive and Their Interrelationship
भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य कार्यपालिका की भूमिका, शक्तियाँ और उनके आपसी संबंध...

🔷 प्रस्तावना:

भारतीय संविधान संघीय ढांचा प्रस्तुत करता है, जिसमें कार्यपालिका की शक्तियाँ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विभाजित हैं। कार्यपालिका का अर्थ है – निर्णय लेने, उसे लागू करने और प्रशासनिक संचालन की जिम्मेदारी।

🔷 संघीय कार्यपालिका (Union Executive):

अनुच्छेद 52 से 78 तक संघ कार्यपालिका को परिभाषित करते हैं। इसमें निम्नलिखित पद आते हैं:

  • राष्ट्रपति (President): भारत का संवैधानिक प्रमुख।
  • उप-राष्ट्रपति (Vice-President)
  • प्रधानमंत्री (Prime Minister): वास्तविक कार्यकारी प्रमुख।
  • मंत्रिपरिषद (Council of Ministers)
  • महान्यायवादी (Attorney General of India)

🔷 राज्य कार्यपालिका (State Executive):

अनुच्छेद 153 से 167 तक राज्य कार्यपालिका को परिभाषित करते हैं। इसमें शामिल हैं:

  • राज्यपाल (Governor): राज्य का संवैधानिक प्रमुख।
  • मुख्यमंत्री (Chief Minister): राज्य का वास्तविक कार्यकारी प्रमुख।
  • राज्य मंत्रिपरिषद
  • महाधिवक्ता (Advocate General of the State)

🔷 शक्तियों और कार्यों की तुलना:

संघ कार्यपालिका राज्य कार्यपालिका
राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख
प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य मंत्रिपरिषद
राष्ट्रीय नीति निर्धारण राज्य स्तरीय नीति निर्धारण

🔷 संघ और राज्य कार्यपालिका का परस्पर संबंध:

  • राज्यपाल की नियुक्ति: राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है (अनुच्छेद 155)।
  • राष्ट्रपति की शक्तियाँ: राष्ट्रपति राज्य में आपातकाल लागू कर सकता है।
  • संपर्क और समन्वय: योजना आयोग, नीति आयोग, वित्त आयोग जैसी संस्थाओं के माध्यम से समन्वय।
  • कार्यकारी निर्देश: अनुच्छेद 256 एवं 257 के तहत केंद्र राज्यों को निर्देश दे सकता है।

🔷 संविधानिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 53: राष्ट्रपति के हाथों में कार्यपालिका की शक्तियाँ।
  • अनुच्छेद 74: मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को परामर्श देती है।
  • अनुच्छेद 163: राज्यपाल को मुख्यमंत्री और मंत्रियों की सलाह लेनी होती है।
  • अनुच्छेद 356: संविधान के विफल होने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन।

🔷 प्रमुख केस कानून:

  • SR Bommai v. Union of India (1994):
    राष्ट्रपति शासन की सीमाओं और संघ-राज्य संबंधों की व्याख्या की गई।
  • Shamsher Singh v. State of Punjab (1974):
    राज्यपाल और राष्ट्रपति के कार्य में मंत्रिपरिषद की भूमिका को स्पष्ट किया गया।
  • Nabam Rebia v. Deputy Speaker (2016):
    राज्यपाल की शक्तियों की न्यायिक समीक्षा और सीमाएं तय की गईं।

🔷 व्यावहारिक दृष्टिकोण:

  • राजनीतिक मतभेदों के कारण कई बार संघ-राज्य टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है।
  • राज्यपाल के पद का दुरुपयोग करने के आरोप लगते रहे हैं।
  • नीति आयोग, जीएसटी परिषद जैसे मंचों ने समन्वय को बेहतर किया है।

🔷 निष्कर्ष:

संघ और राज्य कार्यपालिका के बीच स्पष्ट शक्तियों का विभाजन तो है, परंतु सहयोग और समन्वय की भावना भी आवश्यक है। भारतीय संविधान इस संबंध में ‘सहकारी संघवाद’ की कल्पना करता है जहाँ केंद्र और राज्य दोनों संविधान के भीतर रहकर कार्य करें।

Lecture 3. Union and State Legislature and Distribution of Legislative Powers
भारत के संविधान में विधायी शक्तियों का वितरण – केंद्र और राज्य के बीच विभाजन...

🔷 प्रस्तावना:

भारतीय संविधान संघीय ढाँचा प्रदान करता है, जिसमें विधायी शक्तियों का वितरण केंद्र और राज्यों के बीच किया गया है। यह वितरण संविधान की सातवीं अनुसूची में तीन सूचियों के माध्यम से किया गया है:

  • 🔹 संघ सूची (Union List) – List I
  • 🔹 राज्य सूची (State List) – List II
  • 🔹 समवर्ती सूची (Concurrent List) – List III

🔷 अनुच्छेद संबंधित प्रावधान:

  • अनुच्छेद 245: संसद और राज्य विधानमंडल की विधायी शक्तियाँ।
  • अनुच्छेद 246: तीन सूचियों के अनुसार शक्तियों का वितरण।
  • अनुच्छेद 248: संसद को अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers)।

🔷 संघ सूची (List I):

इसमें 97 विषय हैं जिन पर केवल संसद कानून बना सकती है। जैसे – रक्षा, विदेश मामले, नागरिकता, रेलवे, मुद्रा, बैंकिंग आदि।

🔷 राज्य सूची (List II):

इसमें 66 विषय हैं जिन पर राज्य विधानसभाएँ कानून बना सकती हैं। जैसे – पुलिस, सार्वजनिक स्वास्थ्य, भूमि, स्थानीय सरकार आदि।

🔷 समवर्ती सूची (List III):

इसमें 47 विषय हैं जिन पर संसद और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। जैसे – शिक्षा, विवाह, वन, दंड प्रक्रिया आदि। टकराव की स्थिति में संघ का कानून प्रभावी होगा (अनुच्छेद 254)।

🔷 अवशिष्ट शक्तियाँ:

संविधान में निर्दिष्ट न होने वाले विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केवल संसद को है (अनुच्छेद 248)।

🔷 विशेष स्थिति में संसद राज्य विषयों पर भी बना सकती है:

  • 🟢 राज्यसभा का संकल्प (Art. 249): राष्ट्रीय हित में 2/3 बहुमत से।
  • 🟢 राष्ट्रपति शासन (Art. 356): राष्ट्रपति शासन के दौरान।
  • 🟢 दो या अधिक राज्यों का अनुरोध (Art. 252): संसद कानून बना सकती है।
  • 🟢 अंतर्राष्ट्रीय संधि (Art. 253): अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों के पालन हेतु।

🔷 संसद (Union Legislature):

  • लोकसभा (House of the People)
  • राज्यसभा (Council of States)
  • पारित कानून पूरे भारत पर लागू होता है।

🔷 राज्य विधानमंडल (State Legislature):

  • एकल सदनीय (Unicameral) या द्विसदनीय (Bicameral)
  • विधानसभा और कहीं-कहीं विधान परिषद
  • केवल संबंधित राज्य की सीमाओं के भीतर लागू होता है।

🔷 महत्वपूर्ण व अद्यतन निर्णय:

  • State of West Bengal v. Union of India (1963):
    संविधान में केंद्र को उच्चतम सत्ता दी गई है।
  • SR Bommai v. Union of India (1994):
    संघीय ढाँचे में कार्यपालिका और विधायिका के संतुलन की व्याख्या।
  • Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973):
    संविधान का मूल ढाँचा, शक्तियों का सीमित हस्तांतरण।

🔷 वर्तमान घटनाएँ (Current Relevance):

  • NEET परीक्षा पर केंद्र-राज्य विवाद (Concurrent List – शिक्षा)
  • तीन कृषि कानूनों को लेकर राज्यों की आपत्ति (Concurrent List – कृषि विपणन)
  • Uniform Civil Code (UCC) – राज्यों की स्वायत्तता बनाम राष्ट्रहित

🔷 निष्कर्ष:

भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया गया है, लेकिन संघ की प्रधानता बनी रहती है। सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism) की भावना में ही राज्यों और केंद्र को कार्य करना चाहिए जिससे देश में नीति निर्धारण और शासन में संतुलन बना रहे।

Lecture 4. Judiciary
भारतीय न्यायपालिका की संरचना, स्वतंत्रता, शक्तियाँ और संविधान में उसका महत्व...

🔷 भूमिका:

भारतीय संविधान न्यायपालिका को एक स्वतंत्र और निष्पक्ष अंग के रूप में प्रस्तुत करता है जो कानून की व्याख्या, संरक्षण और शासन के अधिनायकवाद पर नियंत्रण की भूमिका निभाता है।

🔷 संरचना:

  • 🔹 उच्चतम न्यायालय (Supreme Court): संविधान का संरक्षक – अनुच्छेद 124 से 147
  • 🔹 उच्च न्यायालय (High Courts): राज्यों के न्यायिक प्रमुख – अनुच्छेद 214 से 231
  • 🔹 अधीनस्थ न्यायालय (Subordinate Courts): जिला और सत्र न्यायालय, मजिस्ट्रेट, सिविल न्यायालय आदि

🔷 शक्तियाँ:

  • मौलिक अधिकारों की रक्षा: अनुच्छेद 32 और 226 के तहत रिट
  • संवैधानिक व्याख्या: संविधान का संरक्षण और विवेचन
  • न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review): असंवैधानिक कानूनों को निरस्त करना
  • अपील अधिकारिता: उच्च न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायालयों से अपील सुनना

🔷 न्यायपालिका की स्वतंत्रता:

  • 🔹 न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यूनतम हस्तक्षेप (कोलेजियम प्रणाली)
  • 🔹 कार्यकाल और वेतन संरक्षित
  • 🔹 न्यायिक आचरण पर विशेष प्रावधान

🔷 न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism):

न्यायपालिका ने समय-समय पर विधायिका व कार्यपालिका की निष्क्रियता के विरुद्ध सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु हस्तक्षेप किया।

🔷 महत्वपूर्ण निर्णय:

  • Kesavananda Bharati v. State of Kerala (1973):
    संविधान के मूल ढाँचे की सिद्धांत की स्थापना।
  • Maneka Gandhi v. Union of India (1978):
    अनुच्छेद 21 का व्यापक व्याख्यान – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को विस्तृत किया।
  • Minerva Mills v. Union of India (1980):
    न्यायपालिका और मौलिक अधिकारों की सर्वोच्चता को मान्यता।
  • Shayara Bano v. Union of India (2017):
    तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक घोषित किया गया।
  • Navtej Singh Johar v. Union of India (2018):
    धारा 377 को आंशिक रूप से असंवैधानिक घोषित किया गया, LGBTQ+ अधिकारों को मान्यता मिली।
  • S. R. Bommai v. Union of India (1994):
    संविधान में संघवाद की परिभाषा और राष्ट्रपति शासन की सीमाएँ तय की गईं।

🔷 वर्तमान मुद्दे (Current Issues):

  • 🟡 न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता: NJAC को असंवैधानिक करार देने के बाद कोलेजियम प्रणाली की आलोचना।
  • 🟡 मामलों में देरी: करोड़ों लंबित मामले, न्याय तक पहुँच एक गंभीर चुनौती।
  • 🟡 लोक अदालत और ई-कोर्ट्स: न्याय प्रणाली में तकनीक और वैकल्पिक विवाद समाधान प्रणाली का समावेश।

🔷 निष्कर्ष:

भारतीय न्यायपालिका लोकतंत्र का एक मजबूत स्तंभ है। इसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता और सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्धता ने इसे विश्व की अग्रणी न्याय व्यवस्था में स्थान दिलाया है। किन्तु नियुक्तियों में पारदर्शिता, केसों की समयबद्ध सुनवाई और तकनीकी दक्षता भविष्य के लिए आवश्यक दिशा हैं।

Lecture 5. Emergency Provisions
आपातकालीन प्रावधानों की संवैधानिक व्यवस्था – प्रकार, प्रभाव और इतिहास...

🔷 आपातकालीन प्रावधानों के प्रकार:

  1. राष्ट्रीय आपातकाल (National Emergency) – अनुच्छेद 352
  2. राज्य का संविधानगत संकट (President’s Rule) – अनुच्छेद 356
  3. वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency) – अनुच्छेद 360

🔶 1. राष्ट्रीय आपातकाल (Article 352):
यह आपातकाल युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में घोषित किया जाता है। यह संपूर्ण भारत या किसी विशेष क्षेत्र पर लागू किया जा सकता है।

  • संसद को राज्य सूची पर कानून बनाने की शक्ति मिल जाती है।
  • अनुच्छेद 19 को स्थगित किया जा सकता है।
  • राज्यों की कार्यपालिका पर केंद्र का पूर्ण नियंत्रण हो जाता है।

🧷 संशोधन: 44वां संविधान संशोधन (1978) के बाद आपातकाल केवल "युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह" के आधार पर ही घोषित किया जा सकता है और अनुच्छेद 19 केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण की स्थिति में ही स्थगित होता है।

🧷 ऐतिहासिक मामला: ADM Jabalpur v. Shivkant Shukla (1976) — जिसे 'हैबियस कॉर्पस केस' भी कहते हैं, इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आपातकाल के दौरान अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार निलंबित किया जा सकता है। यह निर्णय आज भी आलोचना का विषय है।

🔶 2. राष्ट्रपति शासन (Article 356):
जब किसी राज्य में संविधान के अनुसार शासन नहीं चलाया जा सकता, तब राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है।

  • राज्य की कार्यपालिका और विधायिका केंद्र के अधीन हो जाती है।
  • यह अधिकतम 6 महीने के लिए लागू किया जा सकता है, जिसे संसद की स्वीकृति से 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है।

🧷 केस: S. R. Bommai v. Union of India (1994) — यह ऐतिहासिक निर्णय था जिसने राष्ट्रपति शासन के दुरुपयोग पर रोक लगाई और न्यायिक समीक्षा को स्वीकार किया।

🔶 3. वित्तीय आपातकाल (Article 360):
यदि देश की वित्तीय स्थिरता या साख को खतरा हो तो इसे लागू किया जा सकता है।

  • केंद्र वेतन, भत्तों में कटौती कर सकता है।
  • राज्यों के वित्तीय मामलों पर नियंत्रण रखा जाता है।

हालांकि अब तक भारत में यह कभी लागू नहीं हुआ है।

🔷 आपातकाल की प्रक्रिया:

  • राष्ट्रपति द्वारा उद्घोषणा
  • संसद की स्वीकृति 1 महीने के अंदर आवश्यक
  • 6-6 महीने की अवधि तक बढ़ाया जा सकता है
  • संसद में विशेष बहुमत से मंजूरी आवश्यक

🔷 संशोधन और बदलाव:

  • 38वां संविधान संशोधन (1975): राष्ट्रपति की उद्घोषणा को न्यायिक समीक्षा से बाहर किया गया।
  • 44वां संशोधन (1978): न्यायिक समीक्षा बहाल, और जीवन/स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा सुनिश्चित की गई।

🔷 आलोचना:

  • राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना
  • लोकतांत्रिक संस्थानों की कमजोर पड़ती स्थिति
  • नागरिक स्वतंत्रता का हनन

🔷 वर्तमान प्रासंगिकता:
आज भी अनुच्छेद 356 का उपयोग राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता के समय देखा जाता है, लेकिन S. R. Bommai केस के बाद न्यायिक समीक्षा की भूमिका इसे संतुलित करती है।

🔷 निष्कर्ष:
आपातकालीन प्रावधान राष्ट्र की सुरक्षा और संविधान की संरचना की रक्षा के लिए बनाए गए हैं। हालांकि इनका दुरुपयोग लोकतंत्र को कमजोर कर सकता है, लेकिन संवैधानिक संतुलन और न्यायिक समीक्षा इसे नियंत्रित करने में सहायक हैं।

Lecture 6. Temporary, Transitional and Special Provisions in Respect of Certain States
अनुच्छेद 370, 371 आदि के अंतर्गत कुछ राज्यों के लिए विशेष संवैधानिक प्रावधानों की चर्चा...

🔷 परिचय:
संविधान के भाग XXI (अनुच्छेद 369 से 392) में कुछ राज्यों के लिए अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध किए गए हैं। यह उपबंध राज्यों की भौगोलिक, ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण आवश्यक माने गए थे।

🔷 प्रमुख अनुच्छेद:

  • अनुच्छेद 370: जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा (अब निरस्त)
  • अनुच्छेद 371 से 371J: महाराष्ट्र, गुजरात, नागालैंड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, सिक्किम, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक के लिए विशेष उपबंध

🔶 अनुच्छेद 370 (अब हटाया गया):

  • जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त था
  • केवल रक्षा, विदेश मामले और संचार पर केंद्र का अधिकार था
  • अनुच्छेद 35A के तहत राज्य सरकार को विशेष अधिकार थे
हटाया गया: 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को राष्ट्रपति आदेश और संसद द्वारा हटाया गया। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख दो केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए।

🔶 अनुच्छेद 371 से 371J तक:
यह अनुच्छेद विभिन्न राज्यों को उनकी विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर संरक्षण प्रदान करते हैं।

🔷 प्रमुख अनुच्छेदों का सारांश:

  • अनुच्छेद 371: महाराष्ट्र और गुजरात के लिए विकास परिषद की स्थापना
  • अनुच्छेद 371A: नागालैंड में धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं, नागा कानून और भूमि संसाधनों की सुरक्षा
  • अनुच्छेद 371B: असम में जनगणना के अनुसार स्वायत्त परिषद
  • अनुच्छेद 371C: मणिपुर में हिल एरिया कमेटी की व्यवस्था
  • अनुच्छेद 371D: आंध्र प्रदेश में शिक्षा और रोजगार में स्थानीय लोगों को आरक्षण
  • अनुच्छेद 371E: आंध्र प्रदेश में केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना
  • अनुच्छेद 371F: सिक्किम की विशिष्ट संवैधानिक स्थिति
  • अनुच्छेद 371G: मिज़ोरम की धार्मिक, सामाजिक प्रथाओं और भूमि कानूनों की सुरक्षा
  • अनुच्छेद 371H: अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल को कानून व्यवस्था का विशेष अधिकार
  • अनुच्छेद 371J: कर्नाटक के हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र में विकास बोर्ड और आरक्षण की व्यवस्था

🔷 उद्देश्य:

  • राज्यों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विशिष्टता की रक्षा करना
  • विकास में पिछड़े क्षेत्रों को संरक्षण प्रदान करना
  • राष्ट्रीय एकता बनाए रखना

🔷 प्रमुख निर्णय:

  • Mohd. Maqbool Damnoo v. State of Jammu & Kashmir (1972): अनुच्छेद 370 की वैधानिकता पर विचार
  • Prem Nath Kaul v. State of J&K (1959): J&K की संविधान सभा के अधिकारों की पुष्टि
  • Rojer Mathew v. South Indian Bank (2019): विशेष प्रावधानों की न्यायिक समीक्षा की स्वीकृति

🔷 वर्तमान परिप्रेक्ष्य:
अनुच्छेद 370 के हटाए जाने के बाद संविधान की एकरूपता की दिशा में यह एक बड़ा कदम माना गया है। अन्य अनुच्छेदों पर भी अब पुनर्विचार की मांग हो रही है, विशेष रूप से अनुच्छेद 371A और 371G पर।

🔷 आलोचना:

  • संविधान में विषमता की स्थिति
  • संघीय ढांचे पर प्रभाव
  • राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना

🔷 निष्कर्ष:
संविधान के यह विशेष उपबंध भारत की विविधता को सम्मान देते हुए उसे एकता में बांधने का प्रयास हैं। समय के साथ इन प्रावधानों की पुनः समीक्षा और संतुलन की आवश्यकता है ताकि लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक समानता की रक्षा हो सके।

Lecrure 7. Election Commission of India
भारत निर्वाचन आयोग की स्थापना, संरचना, कार्य और स्वतंत्रता का विश्लेषण...

🔷 परिचय:
भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India – ECI) संविधान के भाग XV के अंतर्गत अनुच्छेद 324 से 329 तक स्थापित एक स्वायत्त संवैधानिक निकाय है, जिसका मुख्य कार्य भारत में लोकसभा, राज्य विधानसभाओं, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों का संचालन करना है।

🔷 गठन:
- संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत गठन
- स्थापना: 25 जनवरी 1950
- प्रारंभ में एकल सदस्यीय, 1993 से बहु-सदस्यीय आयोग

🔷 संरचना:

  • मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief Election Commissioner)
  • दो अन्य चुनाव आयुक्त (Election Commissioners)
  • नियुक्ति: भारत के राष्ट्रपति द्वारा
  • कार्यकाल: 6 वर्ष या 65 वर्ष की आयु (जो भी पहले हो)
  • हटाने की प्रक्रिया: केवल संसद द्वारा राष्ट्रपति के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के समान

🔷 शक्तियाँ और कार्य:

  • चुनाव कार्यक्रम की घोषणा और निष्पादन
  • आचार संहिता (Model Code of Conduct) का पालन सुनिश्चित करना
  • राजनीतिक दलों की मान्यता और चुनाव चिन्ह देना
  • चुनाव सुधारों की सिफारिश करना
  • चुनाव में गड़बड़ी की शिकायतों पर कार्रवाई करना

🔷 विधिक प्रावधान:

  • अनुच्छेद 324-329: निर्वाचन आयोग की शक्तियाँ और कार्यक्षेत्र
  • Representation of the People Act, 1950 & 1951: चुनाव पंजीकरण और प्रक्रिया

🔷 प्रमुख न्यायिक निर्णय:

  • S. S. Dhanoa v. Union of India (1991): चुनाव आयुक्तों की स्वतंत्रता पर विचार
  • T.N. Seshan v. Union of India (1995): मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य आयुक्तों के अधिकार समान हैं
  • PUCL v. Union of India (2003): NOTA विकल्प का अधिकार
  • Association for Democratic Reforms v. Union of India (2002): उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि जानकारी (आपराधिक मामलों, संपत्ति आदि) सार्वजनिक करना अनिवार्य

🔷 वर्तमान विधिक और संवैधानिक मुद्दे:

  • चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की पारदर्शिता: 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि CEC और ECs की नियुक्ति एक चयन समिति द्वारा की जाए (प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, और CJI)
  • EC की निष्पक्षता पर सवाल: हाल के वर्षों में चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर विपक्षी दलों द्वारा आलोचना
  • चुनावों में धनबल और बाहुबल: चुनाव आयोग को सशक्त बनाने की मांग

🔷 नवीनतम घटनाएं (2023–2024):

  • CEC की नियुक्ति का नया कानून: 2023 में संसद द्वारा पारित “Chief Election Commissioner and other Election Commissioners (Appointment, Conditions of Service and Term of Office) Act”
  • एक देश एक चुनाव (One Nation One Election): चुनाव आयोग से परामर्श जारी
  • वोटर आईडी और आधार लिंकिंग: बहस जारी है, सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं लंबित

🔷 आलोचना:

  • सीईसी और अन्य आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी नहीं रही
  • आयोग की निष्पक्षता पर राजनीतिक दबाव
  • वर्तमान नियमों में पर्याप्त दंडात्मक शक्तियाँ नहीं

🔷 सुझाव:

  • CEC और ECs की नियुक्ति हेतु संवैधानिक चयन समिति की स्थायी व्यवस्था
  • चुनाव सुधारों हेतु स्वतंत्र आयोग की स्थापना
  • चुनाव व्यय की निगरानी हेतु प्रौद्योगिकी का बेहतर उपयोग

🔷 निष्कर्ष:
भारत निर्वाचन आयोग लोकतंत्र की रीढ़ है। इसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता लोकतांत्रिक व्यवस्था की विश्वसनीयता सुनिश्चित करती है। आवश्यक है कि इसे संवैधानिक संरक्षण, पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया, और व्यापक शक्तियाँ प्रदान की जाएं ताकि यह राजनीतिक दबाव से मुक्त रहकर प्रभावी ढंग से कार्य कर सके।

Lecture 8. Nature, Scope and Importance of Administrative Law
प्रशासनिक विधि की प्रकृति, विकास, सीमाएं और विधिशास्त्र में इसका महत्व...

🔷 परिचय:
प्रशासनिक विधि (Administrative Law) विधि का वह क्षेत्र है जो कार्यपालिका के कार्यों, अधिकारों, सीमाओं और दायित्वों को नियंत्रित करता है। यह राज्य और नागरिकों के बीच संतुलन बनाए रखने में सहायक होता है, विशेषकर जब प्रशासनिक तंत्र का दायरा बढ़ता है।

🔷 प्रकृति (Nature):

  • यह एक शाखा विधि (Branch of Public Law) है।
  • प्रशासनिक विधि गैर-संवैधानिक लेकिन संवैधानिक सिद्धांतों से निर्देशित होती है।
  • यह विकासशील और लचीली प्रकृति की होती है।
  • इसका मुख्य उद्देश्य प्रशासनिक शक्तियों का है।

🔷 परिमाण (Scope):

  • कार्यपालिका की शक्तियाँ और उनके सीमाएं
  • विधिक नियंत्रण: न्यायिक समीक्षा, रिट्स, ट्रिब्यूनल्स
  • प्रशासनिक निर्णयों की न्यायिकता और औचित्य
  • नियमनात्मक शक्तियाँ (Delegated Legislation)
  • प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत (Natural Justice)
  • विधिक दायित्व और उत्तरदायित्व

🔷 महत्व (Importance):

  • सत्तावान कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करता है
  • लोक प्रशासन के न्यायीकरण में सहायता करता है
  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है
  • न्यायपालिका को नियामक भूमिका प्रदान करता है
  • प्रशासनिक कार्यों में पारदर्शिता लाता है

🔷 प्रशासनिक विधि के स्रोत:

  • संविधान
  • विधायी अधिनियम (Statutes)
  • न्यायिक निर्णय (Case Law)
  • नियम और विनियम (Rules and Regulations)

🔷 भारत में विकास:
भारत में प्रशासनिक विधि का विकास विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद हुआ, जब कार्यपालिका की शक्तियाँ अत्यधिक बढ़ गईं। प्रशासनिक ट्रिब्यूनल्स, RTI अधिनियम, लोकपाल आदि इसका प्रमाण हैं।

🔷 संबंधित प्रमुख निर्णय (Leading Cases):

  • A.K. Kraipak v. Union of India (1969): प्रशासनिक और अर्ध-न्यायिक कार्यों में प्राकृतिक न्याय की अनिवार्यता
  • Maneka Gandhi v. Union of India (1978): अनुच्छेद 21 के तहत प्रशासनिक कार्रवाई का औचित्य और विधिक प्रक्रिया
  • Ridge v. Baldwin (UK): प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत की पुनर्स्थापना
  • Union of India v. Tulsiram Patel: प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत में अपवाद की स्वीकृति

🔷 आधुनिक समय की चुनौतियां:

  • बढ़ती प्रशासनिक शक्तियों का दुरुपयोग
  • न्यायिक समीक्षा की सीमाएं
  • नवीन क्षेत्रों में प्रशासनिक हस्तक्षेप – डिजिटल, पर्यावरण, आदि

🔷 सुझाव:

  • प्रशासनिक अधिकारियों के प्रशिक्षण में विधिक ज्ञान की अनिवार्यता
  • अधिक प्रभावी ट्रिब्यूनल्स और लोकपाल तंत्र
  • नवीन क्षेत्रों में स्पष्ट कानूनी मार्गदर्शन

🔷 निष्कर्ष:
प्रशासनिक विधि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का आधार है। यह कार्यपालिका को नियंत्रण में रखकर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है। इसके माध्यम से न्यायिक निगरानी, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व सुनिश्चित होता है। अतः इसकी निरंतर समीक्षा और सुदृढ़ीकरण समय की मांग है।

Lecture 9. Principle of Natural Justice
प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत, उनके प्रकार और न्यायिक एवं प्रशासनिक कार्यवाही में उनका अनुप्रयोग...

🔷 परिचय:
प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) वह सिद्धांत है जो यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी न्यायिक या अर्ध-न्यायिक कार्यवाही में निष्पक्षता, पारदर्शिता और न्याय का पालन हो। यह सिद्धांत किसी विशेष विधि पर आधारित नहीं है, बल्कि यह नैतिकता, समानता और न्याय के सार्वभौमिक आदर्शों से उत्पन्न होता है।

🔷 मूल अवधारणा (Concept):

  • न्याय केवल किया ही न जाए, बल्कि होता हुआ भी दिखे।
  • निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार और पक्षपात रहित निर्णय इसकी मूल आत्मा है।

🔷 मूल सिद्धांत (Basic Rules of Natural Justice):

  1. Nemo Judex in Causa Sua (कोई भी व्यक्ति स्वयं अपने मामले का न्यायाधीश नहीं हो सकता):
    यह सिद्धांत कहता है कि कोई भी निर्णयकर्ता अपने मामले में पक्ष नहीं बन सकता। निष्पक्षता अनिवार्य है।
  2. Audi Alteram Partem (दूसरे पक्ष को भी सुनो):
    प्रत्येक व्यक्ति को अपना पक्ष रखने और जवाब देने का अवसर मिलना चाहिए।
  3. Speaking Order (कारण सहित आदेश):
    निर्णय में स्पष्ट रूप से कारण दिए जाने चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि निर्णय कैसे और क्यों लिया गया।

🔷 उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Origin and Historical Background):
प्राकृतिक न्याय की अवधारणा रोमन कानून से प्रारंभ हुई, लेकिन इसे ब्रिटिश न्याय प्रणाली ने अधिक स्पष्टता और प्रभाव के साथ अपनाया। भारतीय विधिशास्त्र में यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 से जुड़ा हुआ है।

🔷 भारतीय संविधान में स्थान:

  • अनुच्छेद 14: समानता का अधिकार – यह सिद्धांत प्राकृतिक न्याय के मूल में है।
  • अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार – विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय का पालन आवश्यक है।

🔷 प्रमुख निर्णय (Leading Cases):

  • Maneka Gandhi v. Union of India (1978): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया" में प्राकृतिक न्याय का पालन आवश्यक है।
  • A.K. Kraipak v. Union of India (1969): इसमें कार्यपालिका और अर्ध-न्यायिक कार्यों के लिए भी प्राकृतिक न्याय की अनिवार्यता को स्वीकारा गया।
  • Ridge v. Baldwin (UK): यह केस प्राकृतिक न्याय के पुनः स्थापन का प्रमुख उदाहरण है।
  • Union of India v. Tulsiram Patel (1985): अपवादों को मान्यता दी गई जब प्राकृतिक न्याय को टाला जा सकता है।
  • D.K. Yadav v. J.M.A. Industries (1993): सेवा समाप्ति से पूर्व सुनवाई का अवसर देना आवश्यक बताया गया।

🔷 अनुप्रयोग के क्षेत्र (Scope of Application):

  • प्रशासनिक निर्णय
  • निलंबन/सेवा समाप्ति
  • विद्यार्थियों के निष्कासन के मामलों में
  • लाइसेंस रद्द करने की कार्यवाही में
  • ट्रिब्यूनल या जाँच आयोगों में

🔷 अपवाद (Exceptions):

  • राष्ट्रीय सुरक्षा
  • जहां तत्काल कार्यवाही आवश्यक हो
  • जहां कानून स्पष्ट रूप से सुनवाई से छूट देता हो

🔷 वर्तमान महत्व और आलोचना:

  • न्याय प्रक्रिया में पारदर्शिता और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा
  • हालांकि कभी-कभी यह सिद्धांत प्रशासनिक त्वरित निर्णयों में बाधक भी बनता है

🔷 निष्कर्ष:
प्राकृतिक न्याय विधि शासन का आधारभूत स्तंभ है। यह केवल न्याय करने का नहीं, बल्कि न्याय को होते हुए दिखाने का भी सिद्धांत है। यह सिद्धांत आज के लोकतांत्रिक और संवैधानिक शासन प्रणाली में अत्यंत महत्वपूर्ण है, विशेषकर जब अधिकारों की रक्षा और कार्यपालिका की शक्तियों की निगरानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही है।

Lecture 10. Judicial Review of Administrative Actions – Grounds
प्रशासनिक कार्यों की न्यायिक समीक्षा के आधार और उनके विधिक प्रभाव...

🔷 परिचय:
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) एक ऐसी विधिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से न्यायालय प्रशासनिक निर्णयों की वैधता की जांच करता है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रशासनिक निर्णय संविधान और विधि के अनुसार हों, और नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन न करें।

🔷 उद्देश्य:

  • प्रशासनिक शक्ति पर नियंत्रण रखना
  • न्यायिक संरक्षण प्रदान करना
  • कानून के शासन (Rule of Law) को सुनिश्चित करना

🔷 भारत में न्यायिक समीक्षा का संवैधानिक आधार:

  • अनुच्छेद 13: विधियों की असंवैधानिकता की जांच
  • अनुच्छेद 32: मौलिक अधिकारों के उल्लंघन पर सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका
  • अनुच्छेद 226: हाईकोर्ट की व्यापक रिट अधिकारिता

🔷 न्यायिक समीक्षा के प्रमुख आधार (Grounds of Judicial Review):

  1. अधिकार क्षेत्र का अभाव (Lack of Jurisdiction):
    यदि प्रशासनिक निकाय के पास उस विषय पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं है, तो ऐसा निर्णय शून्य हो सकता है।
  2. प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन (Violation of Natural Justice):
    जैसे – पक्ष को सुनवाई का अवसर न देना (Audi Alteram Partem) या पक्षपातपूर्ण निर्णय।
  3. प्रासंगिकता का विचार (Consideration of Irrelevant Matters):
    यदि निर्णय अप्रासंगिक तथ्यों के आधार पर लिया गया हो तो वह अवैध माना जा सकता है।
  4. अनुचित उद्देश्य (Improper Purpose):
    निर्णय लेने की शक्ति का प्रयोग किसी वैकल्पिक या दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य के लिए किया गया हो।
  5. मनमानी (Arbitrariness):
    निर्णय में तर्क, विवेक और न्याय का पालन न हो तो वह मनमाना होता है।
  6. मौलिक अधिकारों का उल्लंघन:
    कोई प्रशासनिक कार्य नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तो न्यायालय उसे निरस्त कर सकता है।
  7. दुर्भावना (Malafide):
    यदि निर्णय दुर्भावना के साथ किया गया हो, तो वह अमान्य होता है।
  8. अति-विवेकाधिकार (Abuse of Discretion):
    जब प्राधिकारी विवेकाधिकार का अनुचित प्रयोग करता है।

🔷 रिट्स के प्रकार (Types of Writs under Judicial Review):

  • हैबियस कॉर्पस (Habeas Corpus)
  • मैंडेमस (Mandamus)
  • प्रोहिबिशन (Prohibition)
  • क्वो वारंटो (Quo Warranto)
  • सर्टियोरारी (Certiorari)

🔷 प्रमुख निर्णय (Leading Cases):

  • Maneka Gandhi v. Union of India (1978): न्यायिक समीक्षा की व्यापकता को स्थापित किया।
  • A.K. Kraipak v. Union of India (1969): प्रशासनिक निर्णयों पर प्राकृतिक न्याय की अनिवार्यता को मान्यता दी गई।
  • State of UP v. Raj Narain (1975): सार्वजनिक हित और गोपनीयता के बीच संतुलन पर प्रकाश डाला।
  • S.P. Gupta v. Union of India (1981): न्यायिक नियुक्तियों में न्यायिक समीक्षा के दायरे को बढ़ाया गया।

🔷 हालिया परिप्रेक्ष्य:

  • Central Vista Project Case (2021): सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक स्वीकृति के न्यायिक परीक्षण की सीमाएं स्पष्ट कीं।
  • Pegasus Spyware Case (2022): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि नागरिकों के अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायिक समीक्षा आवश्यक है।

🔷 सीमा और आलोचना (Limitations and Criticism):

  • न्यायिक सक्रियता के कारण कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप का आरोप
  • कुछ मामलों में न्यायिक समीक्षा न्यायिक देरी का कारण बन सकती है

🔷 निष्कर्ष:
न्यायिक समीक्षा विधि शासन और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए एक मजबूत उपकरण है। यह प्रशासनिक कार्यों की वैधता की जांच करता है और यह सुनिश्चित करता है कि राज्य की शक्ति विधि और न्याय की सीमाओं में रहे। NTA UGC NET Paper 02 के दृष्टिकोण से यह विषय अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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