प्रस्तावना पर विवाद:-
अमेरीकन विधिशास्त्र में उद्देशिका संविधान का अंग नहीं है। साथ ही विधिशास्त्री कार्विन का भी मानना है कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है। भारत में पहली बार इन रि बेरूबारी बनाम भारत संघ के मामले में उच्च्तम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘उद्देशिका को संविधान का प्रेरणातत्व भले ही कहा जाय, किन्तु उसे संविधान का आवश्यक भाग नहीं कहा जा सकता है। इसके न रहने से संविधान के मूल उद्देश्यों में कोई अन्तर नहीं पड़ता है। यह न तो सरकार को शक्ति प्रदान करने का स्रोत है और न ही उस शक्ति को किसी भी भांति निर्बन्धित, नियंत्रित या संकुचित करती है। उद्देशिका का महत्व केवल तब होता है जब संविधान की भाषा अस्पष्ट या संदिग्ध हो। ऐसी अवस्था में संविधान के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए उद्देशिका का सहारा लिया जा सकता है। जहां संविधान की भाषा असंदिग्ध है, उद्देशिका की सहायता लेना आवश्यक नहीं है।’’
संविधान के अन्य खण्डों की तरह संविधान सभा ने प्रस्तावना को ही प्रभावी बनाया लेकिन अन्य भाग पहले से ही प्रभावी हो गये और प्रस्तावना को अंत में शामिल किये जाने के कारण यह था कि इसे सभा द्वारा स्वीकार किया जाए। संविधान सभा के अध्यक्ष डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा था कि प्रश्न यह है कि क्या प्रस्तावना संविधान का भाग है और इस प्रस्ताव को तब स्वीकार कर लिया गया कि प्रस्तावना संविधान सभा का अंग है।
लेकिन उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर निर्णयों के द्वारा प्रस्तावना को संविधान का अंग माना। अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन की प्रक्रिया का उपबंध दिये गये है। फिर यह प्रश्न उठा कि क्या अनुच्छेद 368 के तहत् प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है?
इस संबंध में पहला ऐतिहासिक मामला 1973 में केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के मामले में आया। पहला यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 368 के द्वारा प्रस्तावना में संशोधन नहीं कर सकते। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अनुच्छेद 368 के द्वारा संविधान के मूल तत्व या मूल विशेषताओं को खण्डित करने वाला संशोधन नहीं किया जा सकता है। यद्यपि उच्चतम न्यायालय ने बेरूबारी के मामले में दिये गये निर्णय को उलट दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि उद्देशिका संविधान का एक भाग है। किसी साधारण अधिनियम में उद्देशिका को उतना महत्व नहीं दिया जाता है जितना संविधान में दिया जाता है। संविधान के उपबन्धों के निर्वचन में उद्देशिका का बहुत महत्व है। मुख्य न्यायमूर्ति श्री सीकरी ने कहा कि इस मत के पक्ष में कोई आधिकारिक प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया गया है कि जो शक्तियों के विषय में सही है वहीं निषेधों और परिसीमाओं के विषय में भी सही है। अनेक मामलों में उद्देशिका के आधार पर परिसीमाएॅ उत्पन्न होती हैं। मुख्य न्यायमूर्ति ने कहा कि हमारे संविधान की उद्देशिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है और संविधान को उनमें निहित उदात्त आदर्शों के अनुरूप निर्वचन किया जाना चाहिए। प्रस्तुत मामले में अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत उद्देशिका के आधार पर संसद की संविधान संशोधन की शक्ति पर परिसीमा लगायी गई थी और यह निर्णय दिया गया कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है किन्तु वह संविधान के आधारभूत ढांचे को नष्ट नहीं कर सकती है।
3 Comments
sir English version me not send korenge, hindi me my problem hoga.
ReplyDeleteBook ka link nahi mil RHA mem
ReplyDeleteSir, 20.06.2019 ka question paper aur answer key kaise recieve hoga?
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